226
भक्तेषु दोषदृष्टिः स्याद् अवगुणैकभाषकः।
मनस्वी यो गुरुद्रोही न च तत्सङ्गमाचरेत्॥२२६॥
One should avoid the company of those who perceive drawbacks in devotees, speak only ill of others, are wilful or disobey the guru. (226)
जो मनुष्य भक्तों में दोष देखनेवाला, अवगुण की ही बातें करनेवाला, मनमानी करनेवाला तथा गुरुद्रोही हो उसकी संगत न करें। (२२६)
227
सत्कार्यनिन्दको यश्च सच्छास्त्रनिन्दको जनः।
सत्सङ्गनिन्दको यश्च तत्सङ्गमाचरेन्नहि॥२२७॥
One should not associate with those who defame noble works, sacred texts or satsang. (227)
जो मनुष्य सत्कार्य, सत्शास्त्र तथा सत्संग की निंदा करता हो उसकी संगत न करें। (२२७)
228
वचनानां श्रुतेर्यस्य निष्ठाया भञ्जनं भवेत्।
गुरौ हरौ च सत्सङ्गे तस्य सङ्गं परित्यजेत्॥२२८॥
One should shun the company of those whose words weaken one’s conviction in Bhagwan, the guru or satsang. (228)
जिसकी बातें सुनने से भगवान, गुरु तथा सत्संग के प्रति निष्ठा मिट जाए, उसके संग का परित्याग करें। (२२८)
229
भवेद् यो दृढनिष्ठावान् अक्षरपुरुषोत्तमे।
दृढभक्तिर्विवेकी च कुर्यात् तत्सङ्गमादरात्॥२२९॥
One should respectfully associate with a person who has firm devotion and conviction in Akshar-Purushottam and who is discerning. (229)
जिसे अक्षरपुरुषोत्तम के प्रति दृढ निष्ठा हो, दृढ भक्ति हो तथा जो विवेकी हो, उसकी संगत आदरपूर्वक करें। (२२९)
230
हरेर्गुरोश्च वाक्येषु शङ्का यस्य न विद्यते।
विश्वासुर्बुद्धिमान् यश्च कुर्यात् तत्सङ्गमादरात्॥२३०॥
One should respectfully associate with those who do not doubt the words of Bhagwan or the guru, and are trustworthy and wise. (230)
भगवान तथा गुरु के वाक्यों में जिसे संशय न हो, जो विश्वासी हो, बुद्धिमान हो उसका संग आदर से करें। (२३०)