।। सत्संग दीक्षा।।

166

अत्यन्ताऽऽवश्यके नूनं परिशुद्धेन भावतः।

सत्यप्रोक्तौ न दोषः स्याद् अधिकारवतां पुरः॥१६६॥

If extremely necessary, it is acceptable to convey the truth with pure intent to an authorized person. (166)

अत्यंत आवश्यकता होने पर अधिकृत व्यक्ति को परिशुद्ध भावना से सत्य कहने में दोष नहीं है। (१६६)

167

आचारो वा विचारो वा तादृक् कार्यो न कर्हिचित्।

अन्येषाम् अहितं दुःखं येन स्यात् क्लेशवर्धनम्॥१६७॥

One should never act or think in a way that is hurtful or damaging to others or that increases conflict. (167)

जिनसे अन्य का अहित हो, उसे दुःख हो, या कलह बढ़े, ऐसा आचरण या विचार कदापि न करें। (१६७)

168

सुहृद्भावेन भक्तानां शुभगुणगणान् स्मरेत्।

न ग्राह्योऽवगुणस्तेषां द्रोहः कार्यो न सर्वथा॥१६८॥

With suhradaybhāv, recollect the virtues of devotees. One should never view their flaws or offend them in any way. (168)

सुहृदयभाव रखकर भक्तों के शुभ गुणों का स्मरण करें। उनका अवगुण न देखें और न ही किसी भी प्रकार से उनका द्रोह करें। (१६८)

169

सुखे नोच्छृङ्खलो भूयाद् दुःखे नोद्वेगमाप्नुयात्।

स्वामिनारायणेच्छातः सर्वं प्रवर्तते यतः॥१६९॥

In happy times do not get carried away and in unhappy times do not become discouraged, since everything occurs by Swaminarayan Bhagwan’s wish. (169)

सुख में उन्माद एवं दुःख में उद्वेग से दूर रहें। क्योंकि सब कुछ स्वामिनारायण भगवान की इच्छा से होता है। (१६९)

170

विवादः कलहो वाऽपि नैव कार्यः कदाचन।

वर्तितव्यं विवेकेन रक्ष्या शान्तिश्च सर्वदा॥१७०॥

One should never argue or quarrel with anyone. One should always be well-mannered and remain calm. (170)

किसी के साथ विवाद या कलह कदापि न करें। सदैव विवेकयुक्त आचरण करें तथा शांति रखें। (१७०)