।। सत्संग दीक्षा।।

131

दृश्यो न मानुषो भावो भगवति तथा गुरौ।

मायापरौ यतो दिव्यावक्षरपुरुषोत्तमौ॥१३१॥

One should not perceive human traits in Bhagwan or the guru, since both Akshar and Purushottam are beyond māyā and divine. (131)

भगवान एवं गुरु में मनुष्यभाव न देखें। क्योंकि अक्षर और पुरुषोत्तम दोनों माया से परे हैं, दिव्य हैं। (१३१)

132

विश्वासः सुदृढीकार्यो भगवति तथा गुरौ।

निर्बलत्वं परित्याज्यं धार्यं धैर्यं हरेर्बलम्॥१३२॥

One should develop firm faith in Bhagwan and the guru, renounce feebleness, have patience and derive strength from Bhagwan. (132)

भगवान तथा गुरु में विश्वास दृढ करें, निर्बलता का त्याग करें, धैर्य धारण करें एवं भगवान के बल का आधार रखें। (१३२)

133

कार्यं लीलाचरित्राणां स्वामिनारायणप्रभोः।

श्रवणं कथनं पाठो मननं निदिध्यासनम्॥१३३॥

One should listen to, recite, read, reflect upon and repeatedly recall the incidents of Swaminarayan Bhagwan. (133)

भगवान श्रीस्वामिनारायण के लीलाचरित्रों का श्रवण, कथन, पठन, मनन एवं निदिध्यासन करें। (१३३)

134

प्रसङ्गः परया प्रीत्या ब्रह्माऽक्षरगुरोः सदा।

कर्तव्यो दिव्यभावेन प्रत्यक्षस्य मुमुक्षुभिः॥१३४॥

Mumukshus should always associate with the manifest Aksharbrahman guru with supreme love and divyabhāv. (134)

मुमुक्षु प्रत्यक्ष अक्षरब्रह्म गुरु का प्रसंग सदैव परम प्रीति एवं दिव्यभाव से करें। (१३४)

135

ब्रह्माऽक्षरे गुरौ प्रीतिर्दृढैवाऽस्ति हि साधनम्।

ब्रह्मस्थितेः परिप्राप्तेः साक्षात्कारस्य च प्रभोः॥१३५॥

Intense affection for the Aksharbrahman guru is the only means to attaining the brāhmic state and realizing Bhagwan. (135)

अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरु में दृढ प्रीति ही ब्राह्मी स्थिति एवं भगवान के साक्षात्कार का साधन है। (१३५)